Thursday, March 23, 2023
होली संग हो...ली
जापान, भारत जैसे कुछ मुद्दों को लेकर लगा की जहाँ कुछ लोगो के जीवन में आनंद का रंग भी नहीं है, वही हम सत्जन लोग कैसे कृत्रिम रंगों से खेल कर आनंद पा सकते है, सोचा इसबार नहीं खेलेंगे इसी तर्क में अवकाश का एक एक दिन निकलता रहा, आज होली हैं
अभी तक के मेरे निष्कर्ष का उत्तर ये था की होली नहीं खेलनी है, मैंने सोचा ये समय अंतर्जाल को समर्पित करते है, फेसबुक पुरे दिन पर्यन्त लोग दिखे लगता है, बहुत से लोग खाली है, मेरी तरह उनके भी पास समय हैं, पर शायद नियति कुछ ओर ही चाहती थी छात्रावास में कोई आया था वो चीत्कारकहा हो बे @#$%#$%, बाहर निकलो, देखो मैं आ गया हूँ, कहा हो बाहर निकलो, देखो मैं गूंझिया पेठा लाया हूँ, आ जाओ बहार आकर खा लो ख़तम हो रहा है
शब्दों को जोड़ने पर लगा कोई है, जो आया है एवं उसे ये भी आभास हैं की यहाँ भी लोग है, बाहर के उन्हें कहाँ मिलेगा कुछ इस होली रुपी निरीह अभिशापित क्षेत्र में उसे आभास था मगर फिर भी वो वीर इस होली रुपी वियावान को चीरता हुआ पहुँच गया प्रबंध काय छात्रावाश में धन्य है वो वीर जो आता है इस व्यस्त वातावरण में शत्रुओं को (होली के शत्रु)जगाता भी है की हे वीरो उठो ओर आओ होली न खेलने का प्रण छोडो और आओ रंगले एक दुसरे को होली मित्रता का ही पर्व है मैं नीचे पहुंचा मगर तब तक वो मानव ऊपर दरवाजों को खोल कर सबको बुला रहा था कुछ बाहर निकले और कुछ नहीं निकलना चाहते है, सो रहे है
उसे देख कर मैं अंततः निष्कर्ष पर पहुँच गया होली तो आनंद का पर्व है मित्रता का हमे ये मनाना चाहिए मगर सीमित संसाधनों से अंततः मैंने इस बार भी होली का आनंद लिया मगर मेरे साथ कुछ घटनाये थे मेरे स्मृति पटल पर जीवन पर्यंत स्मृति हेतु उसकी जो समय रखता है पूरे समाज का शायद बड़े ही छोटे स्तर पर जो आभास कर सकता था दूसरो का भी, वो जो जीवन में बहुत ही संतुलित होगा, उसे आभास है आपने जीवन में जीवन से जुड़े छोटे छोटे लोगो का भी, कोटि कोटि नमन उस मानव को, मैं आशा करता हूँ आलोचक उसका नाम जानना चाहेंगे, मैं आप से जानना कहूंगा वो कौन है ???
प्रत्यक्षदर्शी
धन्यवाद, माँ तुझे...मुझे रचने के लिए
आज का दिन बहुत व्यस्त रहा आज की उपलब्धि ये रही की रोज की तरह हमने अपने कार्यो को पूरा किया, और रोज की तरह ही हॉस्टल आकर सो गए नींद खुलते ही हमने देखा की मेरे दयाद सो रहे हैं (अब अगर ये मेरे कमरे के एवं कमरे में रखी हुई हर वस्तु के, मेरे ही तरह मालिक हैं तो मेरे दयाद ही हुए ना) सोचा आओ शोध करे, अंतर्जाल का पहला पन्ना, मदर्स डे ?
गूगल ने आज अपने डूडल को मदर्स डे से सजा रखा हैं, कुछ क्षणों का विराम जो मुझे पूरा जीवन वापस दिखा लाया ठीक उसी तरह जब आप मरने वाले हो या आपके ऊपर कोई ऐसी विपदा हो जिसमे आपको लगे की यही अंत हैं वैसे ही, जो पुरे जीवन पर्यंत के अच्छे-बुरे कर्म दिखाने का क्षमता रखता हो सिर्फ चंद क्षणों में ये वही पल था मैं खो गया, उस अंतहीन गहरायी में जहाँ सिर्फ मैं था और, मेरी माँ थी, मैं सोचता हूँ की वो कौन कौन से क्षण रहे होंगे मेरे जीवन के जब मैंने आपने माँ को कही से भी दुखी किया होगा, इसी कसमकस में मैं अपने माँ का जीवन देखता हूँ, जो आती हैं मेरे परिवार में मेरे पिता के साथ एक नई व्याहता के रूप में सब कुछ नया होता हैं, सबकुछ, नया परिवार, नए लोग, नए रिश्ते नाते, नई संस्कृति, नई भेष भूषा, नया भोजन, नया मोहल्ला...यहाँ तक की उसे अपना व्यवहार भी नया लगा होगा, और वो इतनी समर्थता कहा से लाई होगी इनसे जूझने की मुझे गर्व हुआ सिर्फ मेरे माँ के लिए ही नहीं वरण सारी दुनिया की, सभी माताओ के लिए जिन्होंने अपने जीवन में ऐसी परिस्थितियो का सामना किया हैं, यही नहीं पूरी नारी "जात" इस सम्मान के लिए फिर मुझे याद आता हैं मेरा जन्म, सिर्फ मेरा ही नहीं मेरे जैसे औरो का भी तुम्हारे खून से हमारा जीवन तुमने अपने व्यस्ततम से व्यस्ततम समय को भी काटा मेरे लिए सिर्फ मेरे या मुझ जैसे के लिए तुम्हारा प्यार, तुम्हारा डाटना, तुम्हारा दुलार, तुम्हारा पुचकारना, मैं सोच कर निराश हो जाता हूँ की कितनी जल्दी ये इतनी आसानी से हमने खो दिए या ये कहूँ की समय तो बड़े आराम से चल रहा था, मुझे ही जल्दी थी इसे भूलने की मैं अपने आप को भाग्यशाली समझता हूँ की आज मैं उन पालो को याद कर पा रहा हूँ, मुझे चोट लगने पर तेरा रोना मेरे बीमार पड़ने पर तेरा रात - रात भर जागना, मेरे स्कूल जाने पर रास्तो को देखते रहना, की मैं कब वापस आऊंगा, मेरे खाना नहीं खाने पर तेरा भूखा रहना, मुझे कुछ जो मैं चाहू खिलने की तेरी लालसा मेरे कपडे, मेरे खिलौने, मेरा पापा से मार खाना, ये सारी बाते अब बस मैं याद कर सकता हूँ, जगजीत सिंह की पंक्तिया "ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो...वो कागज की कश्ती..."
ये आसान नहीं हैं अचानक मुझे अपने बचपन की एक घटना याद आ जाती हैं जब मैं माध्यमिक परीक्षाओ के नजदीक था, उनदिनो हमारे मुहल्ले में चोरी की घटनाये दिन प्रति दिन बढती ही जा रही थी, चूँकि ठण्ड के दिन थे, जो चोरो के लिए अतिरिक्त आय का समय होता हैं, जब सारी दुनिया सो रही होती हैं वो अपने कम को पूरा करने की कोशिश करते हैं, कभी सफल एवं कभी असफल होते हैं, ये बाते फिर से मुझे प्रेरित करने लगे ईश्वर के अस्तित्व के ऊपर प्रश्न चिन्ह लगाने को, हिन्दू धर्मं की ऐशी धारणा हैं की हम जो भी करते हैं उसके लिए हमे ईश्वर प्रेरित करता हैं फिर ऐसा क्यूँ ?
वही ईश्वर जो एक शिक्षक को पढ़ाने के लिए, एक छात्र को पढने के लिए, एक चिकित्सक को इलाज के लिए, एक लेखक को रचना के लिए, एक साधू को ज्ञान बाटने के लिए प्रेरित करता हैं, वही क्यूँ एक चोर को चोरी के लिए प्रेरित करता हैं, अगर कर भी देता हैं तो फिर क्यूँ उसे बचाता हैं, पकडे जाने से या, उसे एक सिपाही के सामने खड़ा करता हैं, अगर सारी बाते आपही निर्धारित करते हैं तो ऐसा क्यूँ ये बाते पूर्वजन्म पर नहीं फेकी जा सकती क्यूंकि वो भी आपही ने निर्धारित किया था, फ़िलहाल उस दौरान हमारे क्षेत्र में जो की कलकत्ता का एक छोटा सा क़स्बा था, चोरी अपने चरम पे थी सभी लोगो के चेहरे पर उस दौरान शाम होते ही परेशानी बड़ी आसानी से दिख जाती थी वैसे हमारा क़स्बा बड़ा ही जिन्दा दिल था या मैं तो बड़े गर्व से कह सकता हूँ की मैंने जीवन में इसका कोई जोड़ पूरे भारत में कही और नहीं देखा, इस बड़े कम ही समय में मैंने पूरे उत्तर भारत के कई चक्कर लगाये ,बड़े से बड़े एवं छोटे से छोटे स्थानों पर गया, मगर इसका जोड़ नहीं चाहे किसी भी धर्मं,जाती,राष्ट्र का पर्व हो उल्लाश में कोई कमी या उसके आयोजन में कोई कोताही नहीं होती थी हर समय मस्त रहते थे ये लोग चाहे अभी पिछले दंगे में आपके क्षेत्र/घर में बम हमने फेका हैं आज तो साथ मिलकर ही चंदा काटेंगे उन चेहरों की परेशानिया यही कहती थी की कही आज मेरा घर न हो लोग सडको पर यही देखते थे की कोई कौन कौन सी नजरे उन्हें देख रही हैं या कौन सी नयी आँखें उनके घर के तरफ हैं शाम से ही सारी चीज़े घर के अन्दर बस ताले ही देखते थे, एक दुसरे को की कौन आज टूटेगा, हम अपने कमरे में थे, खाना जल्दी खा लिया था क्यूंकि मेरी परीक्षा नजदीक थी, पापा घर पर नहीं थे में और मेरी माँ दोनों अपने अपने कमरे में में जग रहा था क्यूंकि मुझे प्रायश्चित करना था, उन पापो का जो में कक्षा के शुरू के दिनों में न पढ़ कर कमाए थे मगर मेरी माँ भी प्रायश्चित कर रही थी जग कर "वो शायद मुझे जन्मदेने का था" जो मुझे उसके करवटे बदलने पर आभाष दिलाती थी की वो जग रही हैं पड़ोस में कई मकान और मकानों में लोग भी थे "जो पता नहीं क्या कर रहे थे " अचानक छत पर धडाम की आवाज़ मेरे कान खड़े हो जाते हैं और में ठीक उसी तरह ध्यान से सुनने की कोशिश करता हूँ, जैसे एक मेमना किसी पेड़ से बधा अँधेरे में देखता हैं किस आहट में उसके लिए मौत एक शेर के रूप में आ रही हैं...या शेर की मौत उस आहट के साथ आ रही हैं, मैंने आभाष किया की मेरी माँ भी खड़ी हैं आपने कमरे में, थोड़ी देर का सन्नाटा फिर, मेरी माँ की पुकार "सिटिल" जगे हो क्या,(ये मेरे घर का नाम हैं ) हाँ माँ कमरे से न निकलना, क्यूँ...,कोई हैं छत पर, मै जाकर देखता हूँ, नहीं न जाओ, उसी दौरान आँगन से आवाज आती हैं,जैसे कोई कुछ ढूंढ रहा हैं अँधेरे में, बड़े ही बेतरतीब तरीके से सारी चीजो को उलट पलट कर,मुझसे रहा नहीं गया मैंने आवाज़ लगाई कौन कोई जवाब नहीं...हाँ हल्की सी फुसफुसाहट जैसे उन लोगो ने सुना ही नहीं उसी क्षण ये भी आभास हुआ की हमारे पडोसी भी जग रहे हैं और शायद तैयार हो रहे हैं उन चोरो के जाने का ताकि आकर पूछ सके की क्या क्या गया, वो बाहर नहीं निकल रहे थे और उस सुनसान रात मै बस में और मेरी माँ की आवाज गूँज रही थी, जिसमे एक उदंड और जिम्मेदार बहस कर रहे थे, जहाँ मेरी माँ मुझे मना कर रही थी की में बाहर न जाऊ और में बाहर निकलने को तैयार था जब उसे आभास हो गया की में नहीं मानूंगा तब उसने कहा अच्छा एक मिनट रुको उसने पड़ोसिओ को आवाज़ दी कोई जवाब नहीं मिला उसे लगा होगा की शायद सभी बाहर निकले तो चोर भाग जायेंगे
और में बच जाऊंगा उसका दर वाजिब था इतनी रात को कोई किसी के घर चोरी करने खली हात नहीं आता है जरूर उन्होंने कुछ तो रखा ही होगा पिस्तौल,चाकू या बम जो की हमारे यहाँ बच्चे क्रिकेट मैच के जगदे में भी मार देते थे वो उनसे मुझे बचाना चाहती थी पड़ोसियो के जवाब न देने पर माँ कहती हैं जाने दो कुछ खाश नहीं हैं आँगन में ले जाने दो मगर, पुरानी कहावत हैं जो मैंने ऍम.बी.ए. की दौरान सुना था "लौंडो की यारी और गधे की सवारी बराबर होती हैं”
मैं कैसे मान जाता मैं तैयार था दरवाज़ा खोलने को उस दौरान जब मेरी माँ ने मुझे एक मिनट रूकने को कहा था मैंने कमरे के अन्दर से एक लाठी ढूंढ लिया था, सुरक्षा के दृष्टि से, माँ को जब लग गया की मैं नहीं मानूंगा उसने फिर मुझे एक मिनट रूकने को कहा मैं अब बस तैयार था अचानक मुझे लगा की माँ कमरे का दरवाज़ा खोल रही हैं हम दोनों के कमरे एक ही आँगन में खुलते थे जिसमे वो चोर खड़े थे मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा गया ये सोच कर की मैं मुझसे पहले उनचोरो के समाने होगी और वही उनका पहला शिकार होगी मैंने पागलो की तरह दरवाज़ा खोला शायद मैं पहले ऐसे नहीं खोलता पहले भरपूर आवाज़ करता ताकि उनमे अगर कोई डरपोक हो तो भागे और उसे देख कर सब भागे मगर ये सोच कर की माँ आँगन में मुझसे पहले हैं और जब मैं बहार आया तब देखा की माँ कड़ी हैं और आँगन में कोई नहीं हैं ऊपर सीढियों पर कोई भाग रहा हैं मुझसे रहा नहीं गया मैं लाठी लेकर छत पर भागा सिर्फ इसलिए की कही माँ उधर पहले न चली जाये मेरा सौभाग्य छत खाली था वो छत से कूद चुके थे मैंने मुंडेर पर जाकर उन्हें पहचानने की कोशिश की ताकि बाकि का हिसाब अगर मिल गए तो सुबह चौराहे पर समझ लेंगे मगर उनका सौभाग्य वो सब कही बाहर के चेहरे थे, आउटसोर्स, आउटसोर्सिंग यहाँ भी थी ये भी आधुनिक हो रहे हैं, या यु कहे भूमंडलीकरण का प्रभाव इन्हें भी वैश्विक स्तर का बना रहा हैं उस छत पर मैं रूक गया और धन्यवाद देता रहा आँखें बंद करके शायद उस शक्ति को...परमेश्वर को...मैं तब तक ऊपर रहा जब तक मेरी माँ मुझे लेने ऊपर तक न आ गयी फिर हम दोनों अपने पड़ोसिओ को कोशते हुए नीचे आ गए, अब मैं माँ के साथ ही सोया, आजका “प्रायश्चित” हो चूका था...जो भी होना था अब मैं माँ के साथ सो गया उसके आँचल में सोचते हुए, जहाँ मेरी सोच सीमित हो गयी थी, पूरी दुनिया, घटना को परे धकेल कर की मैं इतना बड़ा क्यूं हो गया की अब अपने माँ के गोद में ही नहीं आ पा रहा हूँ ?
इस घटना को आज भी मैं याद करके रोमांचित हो गया, धन्यवाद मेरे दयाद को सोने के लिए, धन्यवाद अंतर्जाल को संसाधनों के लिए, धन्यवाद गूगल को डूडल के लिए, धन्यवाद मेरे रचनाशक्ति को, धन्यवाद आपको पढने के लिए, और अंततः
धन्यवाद, माँ तुझे...मुझे रचने के लिए...